मोहब्बत तो हमें भी था उनसे बेपनाह।
मोहब्बत तो हमें भी था उनसे बेपनाह,
मगर कभी जताना न आया।
जो पहुँचे उनके पास इश्क़ का फ़रमान लेकर,
तो उन्हें निभाना न आया।
ये सच है के हम भी नासमझ थे,
और नादां वो भी थी,
जो गिरे इश्क़ में ठोकरें खाकर हम,
तो उन्हें संभालना भी न आया।
मुझे यक़ीन था के तूफ़ां में,
वो कस्ती का साथ नही छोड़ेंगे,
ज़िक्र साहिल का वो क्या करेंगी दोस्तों,
जिनका खुद अब तक किनारा न आया।
न जाने उन्हें किस जीत की आस थी,
दर्द से जीतें हैं हमने कई महफिलें,
उम्र भर भटकते रहे मगर,
खुशियों का कोई ठिकाना न आया।
-दीपक कुमार
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